4/26/2009

पत्थरों पर बैठी स्त्री

कुतुब मीनार के अहाते में

बिखरे पत्थरों पर बैठी एक स्त्री

चुपचाप विचारमुद्रा में लीन

सोचती कुतुब के अतीत को

और सोचती अपने अस्तित्व को

उन पत्थरों पर खुदे थे निशान

उन पत्थरों पर खुदी थी आकृति

उसी तरह जैसे स्त्री के मन में

उठ रहे बवंडर और अंतरात्मा की आवाज

चहुँओर था शांत वातावरण

धूप सिर पर थी

चेहरे था आंचल से ढंका

सोच रही थी वह स्त्री खंडहर परिसर को लेकर

जिस तरह सदियों से स्त्री का न रही थी पहचान

बस जीती रही खंडहर बनकर

पुरूष ने दासियाँ बनाई

कठपुतली समझ नाच नचाई

वह तो थी बस एक तूफ़ान

जो थमने पर छोड़ गई थी

एक खंडहर

आज भी मौजूद हैं उसके निशान

कुतुबमीनार के आहाते में वह आई थी एक दिन

जगमगा रहा था पूरा परिसर

लेकिन आक्रामक और दकियानूसी पुरूष और उनकी मुद्राएँ

बना दी उसे एक तूफ़ान

और इसी का परिणाम है

आज का वह कुतुबुद्दीन का खंडहर

फ़िर सदियों बाद

अनंतर कथा और कथानक के बीच

आज आई थी वह इसी खंडहर में

बैठी थी उस पत्थर पर

जो चश्मदीद गवाह रहा था

उसकी तेज का, उसकी आस्था का

उसके विश्वास का

और उसकी भावभंगिमा का

वह पत्थर भी आज सालों बाद

उस स्त्री के साथ चिंतनीय मुद्रा में था

जब एक स्त्री बन जाती है तूफ़ान

न केवल नगर-नगर बड़े-बड़े शूरमाओं के

ध्वस्त हो जाते हैं शान

खंडहर हो जाता है सारा जहाँ

और बस बाकी बचता है

एक खंडहर

जो किसी न किसी को

लगता है अपना-सा।

No comments: